यादव समाज - परिचय

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7.ययाति


                                          


ययाति  को भारत का पहला  चक्रवर्ती  सम्राट माना  जाता है  । सत्तासीन होने पर  उन्होंने  अपने राज्य का बहुत विस्तार किया।   इनके पिता  महाराजा  नहुष और माता विरजा  थी ।महाराजा  नहुष के छः पुत्र थे।  ज्येष्ठ पुत्र यति के अतरिक्त अन्य पाँच पुत्रो के नाम थे ययाति , संयाति, आयाति, वियाति और कृति।

ययाति की बुद्धि बहुत  तीव्र थी।  महाराज   नहुष  को अगस्त आदि ऋषियों ने   अजगर बनाकर  इन्द्रप्रस्थ से गिरा  कर दिया था।  सत्ता-विहीन होने के  पश्चात  उनके ज्येष्ठ पुत्र   यति  प्रतिष्ठान की गद्दी के  उत्तराधिकारी थे किन्तु उसने राज्य लेने से इन्कार कर दिया। तब ययाति की  बुद्धिमत्ता, सामर्थ्य और योग्यता को देखकर  प्रतिष्ठान का  राजा बनाया गया ।  सत्ता सँभालने के तुरंत बाद ययाति ने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त किया । स्वयं  शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा।उनकी पत्नी देवयानी से दो पुत्र हुए जिनके नाम थे  यदु और तुर्वसु। दूसरी पत्नी  शर्मिष्ठा के गर्भ से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।  देवयानी के गर्भ से  उत्पन्न ययाति के पुत्र  यदु से यादव वंश चला।  

ययाति का वैवाहिक जीवन :

शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी और  सुंदर राजपुत्री थी।   राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।  देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। 


ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी  सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी। उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी।  उपवन में सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेक वृक्ष थे। उसमे एक सुंदर सरोवर भी था।  सरोवर में सुंदर  मनमोहक कमल खिले हुए थे। उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे।  इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने  वस्त्र उतारकर किनारे रख दिये  और  एक दूसरे  पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी। उस समय भगवान शंकर पार्वती के साथ  उधर से जा रहे थे।  भगवान शंकर को  देखकर  सभी कन्याये बहुत लज्जित हुई। उनकी आँख बचाकर  वे सब तालाब से बाहर निकली और   जल्दी जल्दी  वस्त्र पहनने लगी। हड़बड़ाहट  में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए।  इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली-"ये दैत्य पुत्री शर्मिष्ठा! असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया? जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है, उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है।  मेरे वस्त्र धारण कर तू ने मेरा अपमान किया है।" देवयानी के    काठोर शब्दों  से आहत शर्मिष्ठा तिलमिला गयी। उसने पलटवार करते हुए  क्रोधित स्वर  में   कहा, " ये भिखारिन! तुमने अपने आप को  क्या समझ रखा है? तुझे कुछ पता भी है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तेरा बाप और तू   मेरी रसोई की तरफ देखा करते है।तेरा यह शरीर  मेरे दिए हुए टुकड़ों से ही पल रहा है। " यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के हाथ से   कपडे छीन लिये। उसको वस्त्रहीन करके  उपवन के एक कुएं में ढकेल दिया।स्वयं  सखियों के  साथ   वापस राजमहल  चली गई। 

राजा ययाति जंगल  में शिकार  के लिए  गए   हुए थे।  आखेट  समाप्त करके   वह  उपवन से  गुजर रहे थे।उन्हें बहुत  प्यास लगी थी। पानी की खोज करते  हुए  संयोगवश वह उसी  कुएं पर पहुंचे जिसमें शर्मिष्ठा ने   देवयानी को ढकेल  दिया था। राजा ने  कुएँ में झाँक कर देखा तो   अवाक रह गये।       वस्त्रहीन   युवती  कुए  में   खड़ी कराह रही  थी।  ययाति ने झटपट अपना दुपट्टा   उतारा और    कुएँ में  खड़ी नग्न युवती की तरफ फेंक दिया। दुपट्टा   लपेट कर युवती ने अपना तन आच्छादित किया।  तब   राजा ने देवयानी का  हाथ पकड़कर उसको  कुएँ से बाहर  निकाला।

बाहर  निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा-"हे वीर ! जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे जीवन पर्यन्त  मजबूती से पकड़ रखना।अब कोइ दूसरा इस हाथ को  न पकडने पाये।   मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं।निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने येसा श्राप दिया है."  देवयानी के येसा कहने पर, न  चाहते हुए भी, ययाति ने  उस घटना को दैवी संयोग समझ  कर उसकी बात मान ली और अपने राजमहल चले गए।

 देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास गई।   शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था सब सच सच   कह सुनाया। पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचट गया।  मन में  पुरोहिती और  भिक्षा वृति को बुरा कार्य  कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए।  यह समाचार जब वृषपर्वा को ज्ञात हुआ  तो उनका  मन में शंकाओं से भर गया। " गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें"- अनिष्ट की आशंका से  राजा के मन में भय व्याप्त  हो गया।

राजा महर्षि को मिलने उनके पास गया।   नतमस्तक हो  क्षमा याचना की।   शुक्राचार्य जी बोले-"हे राजन! आपकी पुत्री ने देवयानी को  कष्ट दिया है, उसके क्षमा करने पर मेरी नाराजगी स्वतः समाप्त हो जाएगी। आप उसको मना लो। वह जो चाहती है  उसे पूरा कर दो। "  वृषपर्वा ने कहा," अति उत्तम महर्षि !" राजा तब  याचक भाँति  देवयानी से अनुनय विनय करने लगा।

 देवयानी  के ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी। वह बोलीं -" मै पिता की आज्ञा से विवाहोपरांत जिस पति के घर जाऊं  शर्मिष्ठा  अपनी सहेलियों के साथ उसके यहाँ मेरी दासी बनकर रहे। " शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा। शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया।  शर्मिष्ठा को एक हज़ार सहेलियों के साथ  देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दी गयी।  समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी।सहेलियों सहित  शर्मिष्ठा दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी.


शर्मिष्ठा दासी से  राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?

कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी के  संतानसुख को  देखकर  शर्मिष्ठा के ह्रदय में  भी संतान प्राप्ति की इच्छा जागृत हो गयी।   इस उद्देश्य से उसने राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की।  इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर, शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी, उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया।  इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए। जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले-" हे स्त्री लोलुप! तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये"| तब ययाति जी बोले-"हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है| इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा"| मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा येसा सोचकर, बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए, शुक्राचार्य जी बोले -" जाओ! यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो" |

यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले-'बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो"| तब यदु जी बोले-" पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है"| इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा-"हे पुत्र! तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना"| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे. परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|



राजा ययाति का गृह त्याग
इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है, सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे," हे प्रिय! मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया.तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है, बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है, कम नहीं होती| शरीर बूढा हो जाता हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए.| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन-प्रति-दिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूंगा'| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया|

तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में, यदु को दक्षिण दिशा में, तुर्वसु को पश्चिम दिशा में तथा अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया| पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयम वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने येसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान् का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी|

महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु,, अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए.

ययाति से यदु उत्पन्न हुए,| यदु से यादव वंश चला| यादव वंश में यदु की कई पीढ़ियों के बाद भगवान् श्री कृष्ण,माता देवकी के गर्भ से, मानव रूप में अवतरित हुए|

अगले अध्याय में महाराज यदु के जीवन चरित्र का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जायगा| क्रमशः.

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